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सरसों का पौधा: एक सम्पूर्ण जानकारी
प्रस्तावना
भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ विविध प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। इन्हीं फसलों में से एक महत्वपूर्ण फसल है सरसों। सरसों का पौधा न केवल किसानों के लिए आय का प्रमुख स्रोत है, बल्कि यह स्वास्थ्य, आहार और औद्योगिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत उपयोगी है। यह एक ठंडी जलवायु वाली फसल है जो रबी के मौसम में बोई जाती है और वसंत ऋतु में पक कर तैयार होती है। सरसों की खेती देश के विभिन्न भागों में होती है, विशेष रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और बिहार में इसका उत्पादन अधिक होता है।
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सरसों की उत्पत्ति और इतिहास
सरसों का वैज्ञानिक नाम Brassica है और यह क्रूसीफेरी (Cruciferae) कुल का पौधा है। इसका मूल स्थान एशिया और यूरोप माना जाता है। भारत में सरसों की खेती प्राचीन काल से हो रही है। आयुर्वेदिक ग्रंथों में भी सरसों के औषधीय गुणों का उल्लेख मिलता है। इसके बीजों से तेल निकाला जाता है जो भोजन पकाने, मालिश करने और आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है।
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सरसों की किस्में
भारत में सरसों की कई किस्में उगाई जाती हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं:
1. भारत सरसों (Indian Mustard) – यह सबसे सामान्य किस्म है, जिसमें पीले फूल और भूरे या काले बीज होते हैं।
2. येलो सरसों (Yellow Mustard) – इसके बीज पीले रंग के होते हैं, और यह विशेष रूप से तेल व मसाले के रूप में उपयोग होती है।
3. टारड (Taramira) – यह एक कम पानी में उगाई जाने वाली किस्म है।
4. राय (Rai) – इसके बीज छोटे और गहरे रंग के होते हैं।
5. सरसों-151, वरुणा, पन्त पीताम्बरा – ये HYV (High Yielding Varieties) हैं जो अधिक उत्पादन देती हैं।
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जलवायु और भूमि की आवश्यकता
सरसों की अच्छी पैदावार के लिए निम्नलिखित जलवायु और मिट्टी आवश्यक होती है:
जलवायु: सरसों ठंडी जलवायु की फसल है। इसे 10°C से 25°C तापमान में अच्छी वृद्धि मिलती है।
भूमि: उपजाऊ, बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है। pH मान 6 से 7.5 के बीच होना चाहिए।
सूर्यप्रकाश: सरसों के पौधों को भरपूर धूप की आवश्यकता होती है। छाया में इसकी वृद्धि धीमी हो जाती है।
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भूमि की तैयारी
बीज बोने से पहले खेत की अच्छी तरह से जुताई आवश्यक होती है:
1. 2-3 गहरी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरी बनाना चाहिए।
2. खाद एवं गोबर की अच्छी मात्रा मिट्टी में मिला देना चाहिए।
3. अंतिम जुताई के समय पाटा लगाकर मिट्टी समतल कर लेनी चाहिए।
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बीज की बुवाई
समय: अक्टूबर से नवंबर के बीच बुवाई करें।
बीज की मात्रा: एक हेक्टेयर के लिए 4 से 6 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।
बोने की विधि: कतारों में बुवाई करें। कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सेंटीमीटर रखें।
बीज उपचार: बीजों को फफूंदनाशी (थायरम या कार्बेन्डाजिम) से उपचारित करें।
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खाद और उर्वरक
सरसों की बेहतर पैदावार के लिए खाद और उर्वरकों का संतुलित प्रयोग जरूरी है:
गोबर की खाद: 8-10 टन प्रति हेक्टेयर।
यूरिया: 80 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
डीएपी: 60 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
पोटाश: 20 किग्रा प्रति हेक्टेयर।
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सिंचाई प्रबंधन
सरसों को बहुत अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती:
1. पहली सिंचाई बुवाई के 20-25 दिन बाद करें।
2. दूसरी सिंचाई फूल आने के समय करें।
3. तीसरी सिंचाई फलियों के बनने के समय करें।
जलभराव से पौधों को नुकसान हो सकता है, अतः जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
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रोग एवं कीट नियंत्रण
सरसों पर कई रोग व कीट आक्रमण करते हैं:
सफेद गिलसुआ: कार्बेन्डाजिम से उपचार करें।
तना गलन: थायरम व कैप्टन का प्रयोग करें।
काली मक्खी व माहू: इमिडाक्लोप्रिड या डायमेथोएट का छिड़काव करें।
पत्ती मरोड़ वायरस: प्रभावित पौधों को नष्ट करें।
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फूल आना और कटाई
सरसों के पौधे में बुवाई के 40-45 दिन बाद फूल आना शुरू होता है।
लगभग 90-100 दिन में फलियाँ पककर तैयार हो जाती हैं।
जब फलियाँ पीली हो जाएँ और बीज सख्त हो जाएँ, तब कटाई करें।
कटाई के बाद पौधों को सूखने दें और फिर थ्रेशर या हाथों से दाना अलग करें।
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उत्पादन और उपज
सामान्यतः एक हेक्टेयर भूमि से 15 से 20 क्विंटल बीज की उपज प्राप्त होती है।
अच्छी देखरेख व HYV किस्मों से यह उपज 25-30 क्विंटल तक हो सकती है।
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सरसों का उपयोग
1. तेल उत्पादन: बीजों से तेल निकाला जाता है।
2. भोजन: सरसों का साग, बीज व तेल का उपयोग भोजन में होता है।
3. औषधि: सरसों का तेल आयुर्वेद में दर्द निवारण, त्वचा रोगों आदि में उपयोग होता है।
4. चारा: सरसों की पत्तियाँ और पौधों के अवशेष पशुओं के लिए चारा बनते हैं।
5. खली: बीजों से तेल निकालने के बाद बची खली खाद व चारे के रूप में काम आती है।
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सरसों की खेती के लाभ
कम लागत में अधिक मुनाफा।
अन्य रबी फसलों की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता।
तेल व चारे के रूप में दोहरा उपयोग।
मधुमक्खी पालन के लिए उपयुक्त।
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सरसों की खेती में सावधानियाँ
बुवाई समय पर करें।
बीज उपचार आवश्यक करें।
जलभराव से बचाव करें।
फसलों का समय-समय पर निरीक्षण करें।
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सरसों का बाज़ार और मूल्य
सरसों के बीजों और तेल की मांग पूरे वर्ष बनी रहती है। इसके दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार और उत्पादन पर निर्भर करते हैं। किसानों को फसल कटाई के बाद उचित भंडारण व मंडी पहुँचाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
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सरसों का निर्यात
भारत से सरसों के तेल और बीजों का निर्यात कई देशों में होता है जैसे नेपाल, बांग्लादेश, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, आदि। यह विदेशी मुद्रा अर्जन का भी एक साधन है।
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सरसों और जैविक खेती
जैविक विधि से सरसों की खेती करना पर्यावरण और उपभोक्ता दोनों के लिए लाभदायक होता है। गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, नीम खली, जैव उर्वरक आदि का प्रयोग कर जैविक सरसों उगाई जा सकती है।
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निष्कर्ष
सरसों का पौधा भारत की प्रमुख तिलहन फसलों में से एक है। इसकी खेती किसानों के लिए एक सशक्त विकल्प प्रदान करती है। कम संसाधनों में इसकी उपज अच्छी होती है, साथ ही यह बहुपयोगी भी है। सही तकनीक, समय पर देखभाल और रोग-कीट नियंत्रण से इसकी खेती को और अधिक लाभकारी बनाया जा सकता है। सरकार की विभिन्न योजनाओं व अनुदानों का लाभ लेकर किसान सरसों की खेती से अपनी आय दोगुनी कर सकते हैं।
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Corecena
Deepak Singh
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